Friday, June 11, 2010
Bhopal Gais Kand Banam Bofors
भोपाल गैस त्रासदी के आरोपी एंडरसन को गैरकानूनी तरीके से भारत से भगाने का मामला जिस तरह तूल पकड़ d रहा है उसे देखते हुए लगता है कि कांग्रेस के लिए ये दूसरा बोफोर्स कांड ना बन जाए ...इसमें दो मत नहीं कि हजारों लोगों की मौत के लिए जिम्मेदार इस शख्स को भगाने में भूमिका निभाने वाले सारे लोगों पर मुकदमा चलाया जाना चाहिए और इस मामले की समय-सीमा में सुनवाई ख़त्म करने के लिए विशेष अदालत गठित होना चाहिए..
Monday, June 7, 2010
Ye Kaisaa Nyaay
दिसंबर १९८४ में हुयी थी भोपाल गैस त्रासदी ..आज जून २०१० में इसका अदालती फैसला आया है ...हजारों लोगों की मौत से जुड़े इस मामले में आरोपियों को आज सादे २५ साल बाद महज़ दो-दो साल की सज़ा और जुर्माने हुए हैं ...अगर यही न्याय है तो अन्याय किसे कहते हैं ?
Friday, May 28, 2010
Maanyataa Medikal Kaalejon Kee
एमसीआई द्वारा छत्तीसगढ़ के बिलासपुर और जगदलपुर मेडिकल कालेजों की मान्यता समाप्त कर दी गयी..इन्हें ऐन -केन-प्रकारेण कथित रूप से मान्यता दिलाने वाले प्रदेश के आला अफसर और नेता आज इस खबर का खुलासा होने के बाद चौकने या ताज्जुब जताने का दिखावा भले ही करें मगर इसमें ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है कि जिसे हैरत-अंगेज़ कहा जा सके ..सच तो ये है कि नया छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद कांग्रेस शासनकाल में बिलासपुर और भाजपा शासनकाल में जगदलपुर में मेडिकल कालेजों की स्थापना का स्वागतेय कदम तो उठाया गया लेकिन मेडिकल कालेजों को वैधानिक मान्यता देने के लिए तय मापदंडों व शर्तों को पूरा करने में बुरी तरह नाकाम भी रहे ..दूसरी ओर अपनी इस असफलता को छुपाने के लिए ऐसे - ऐसे फर्जी तिकड़म अपनाए गए कि ठग सम्राट नटवरलाल भी इन्हें देख -सुनकर शर्मा जाए ..खासकर , मान्यता पाने के लिए जरूरी लेक्चररों व प्रोफेसरों आदि की फर्जी नियुक्तियां इतनी बेशर्मी से की गयी कि जिसकी मिसाल देने के लिए मुझे कोई शब्द ,कोई विशेषण तक नहीं सूझ पा रहा है ..
ख्याल रहे, नए मेडिकल कालेजों को मान्यता निर्धारित मापदंडों को पूरा करने के आधार पर दी जाती है ..इन मापदंडों में अध्ययन-अध्यापन के लिए पर्याप्त जगह,टीचिंग-स्टाफ,उपकरण आदि की उपलब्धता सहित मरीजों के इलाज़ की समुचित व्यवस्था होने सहित अनेक शर्तें शामिल हैं..छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद कांग्रेस शासनकाल में बिलासपुर में मेडिकल कालेज की स्थापना की घोषणा के साथ ही इन तमाम व्यवस्थाओं के लिए खुले हाथ से फंड भी मुहैया कराये गए ..इन करोड़ों रूपयों के सदुपयोग और दुरूपयोग के किस्से समय-समय पर सुर्खियाँ बनते रहे ..अलबत्ता, इसे प्रथम वर्ष के लिए मान्यता देने से लेकर साल-दर- साल साल अपग्रेड व नवीनीकरण करने के पूर्व
जब-जब भी एमसीआई की टीम आई ,बिलासपुर से लेकर रायपुर तक के आला अफसरों के हाथ-पाँव फूलते रहे .. मापदंडों को पूरा नहीं कर पाना और मान्यता खतरे में पड़ने की आशंका इसका कारण बनती रही..सियासी नज़रिए से मान्यता पाने से लेकर आगे भी उसे बरकरार रखने का ये मुद्दा चूंकि सत्तारुद पार्टी के प्रतिष्ठा का प्रश्न बना रहा ,लिहाजा राज्य सरकार ने भी अपनी और से कोई कोर-कसर नहीं छोडी..मापदंडों को पूरा करने में कमी सामने आने पर शासन स्तर पर अपनी जमानत तक दी..इस तरह ले-देकर हर साल मान्यता की गाडी आगे घिसटती रही..यहाँ ये बताना लाजिमी है कि मान्यता के नाम पर भवन निर्माण ,पुस्तकों और चिकित्सा उपकरणों की खरीदी आदि में अफसरों ने जहां जबरदस्त रुचि ली ..जबकि छात्रों को पदाने के लिए प्राध्यापकों का जुगाड़ करने जैसे सबसे महत्वपूर्ण काम को पूरा करने में वे तब से आज तारीख तक असफल ही साबित होते रहे..एमसीआई की जांच टीम के सामने इस कमी को छुपाने की साज़िश के तहत इधर-उधर के चिकित्सकों को दो-चार दिन के लिए नियुक्ति देकर काम चलाते रहे...इस तरह अफसरों की लाज तो किसी तरह बचती रही लेकिन मेडिकल छात्रों को पदाने के लिए कम से कम चालीस फीसदी प्राध्यापकों की कमी हमेशा बनी रही..इसी बीच छात्रों की तीन बेच डाक्टर बनाकर निकल भी गयी पर प्राध्यापकों की कमी बनी की बनी रही ..प्राध्यापकों की इस भारी कमी के बीच मेडिकल की पदाई अधकचरे दंग से पूरा करनेवाले ये डाक्टर अब जिन्दगी भर हजारों-हजार मरीजों का कितना और कैसा इलाज़ कर पाएंगे इस अहम् सवाल का जवाब आज कहीं से मिलता नहीं दिखता..इन मरीजों को होने वाले शारीरिक,आर्थिक और मानसिक नुकसानों का आकलन कौन और कैसे करेगा ..उन्हें इस नुकसान का मुआवजा किस जनम में मिल सकेगा..फर्जी तौर पर मापदंड पूरा करने की साज़िश करके ऐन-केन-प्रकारेण मान्यता हथियाना क्या जुर्म नहीं है ..किसे मिलनी चाहिए इस जुर्म की सज़ा..कोई भी सभ्य समाज इन सवालों से मुंह कैसे फेर सकता है..यहाँ ये बता दें कि मौजूदा भाजपा शासनकाल में जगदलपुर में मेडिकल कालेज का मान्यता पाने के लिए बिलासपुर जैसी तिकड़मों को अपनाया गया था ..इसी सत्र से पचास सीटों पर भर्ती की इजाज़त भी पा ली थी ..ये तो भला हो नई एमसीआई समिति का कि जिसने बिलासपुर के साथ ही जगदलपुर की मान्यता खत्म करके अधकचरे डाक्टरों की और नई पौध के ऊगने का रास्ता ही बंद कर दिया.
बेशक,इन दोनों मेडिकल कालेजों की मान्यता की समाप्ति के इस ताजे फैसले को छत्तीसगढ़ के हितों के विपरीत बताने वालों की तादाद भी कम नहीं होगी ..संयोग से आज ही पीएमटी का नतीज़ा भी निकला है और इन्हीं मेडिकल कालेजों में पदकर अपना भविष्य संवारने का सपना देखनेवाले छात्रों को भारी मायूसी होगी..लेकिन प्रश्न ये भी है ऐसे कालेजों से निकलनेवाले गुनवत्ताविहीन डाक्टर कल जब हमारा इलाज़ करेंगे तब हम पर क्या बीतेगी.ये शासन की जवाबदारी है वह केवल राजनीतिक वाहवाही लूटने के नाम पर नए-नए मेडिकल कालेज खोलने का ऐलान करने की जगह पहले मौजूदा कालेजों की मान्यताओं के लिए तय मापदंडों को ईमानदारी से पूरा करे और सही अर्थों में मरीजों की सेवा कर सकने योग्य अच्छे डाक्टर समाज को दे..
ख्याल रहे, नए मेडिकल कालेजों को मान्यता निर्धारित मापदंडों को पूरा करने के आधार पर दी जाती है ..इन मापदंडों में अध्ययन-अध्यापन के लिए पर्याप्त जगह,टीचिंग-स्टाफ,उपकरण आदि की उपलब्धता सहित मरीजों के इलाज़ की समुचित व्यवस्था होने सहित अनेक शर्तें शामिल हैं..छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद कांग्रेस शासनकाल में बिलासपुर में मेडिकल कालेज की स्थापना की घोषणा के साथ ही इन तमाम व्यवस्थाओं के लिए खुले हाथ से फंड भी मुहैया कराये गए ..इन करोड़ों रूपयों के सदुपयोग और दुरूपयोग के किस्से समय-समय पर सुर्खियाँ बनते रहे ..अलबत्ता, इसे प्रथम वर्ष के लिए मान्यता देने से लेकर साल-दर- साल साल अपग्रेड व नवीनीकरण करने के पूर्व
जब-जब भी एमसीआई की टीम आई ,बिलासपुर से लेकर रायपुर तक के आला अफसरों के हाथ-पाँव फूलते रहे .. मापदंडों को पूरा नहीं कर पाना और मान्यता खतरे में पड़ने की आशंका इसका कारण बनती रही..सियासी नज़रिए से मान्यता पाने से लेकर आगे भी उसे बरकरार रखने का ये मुद्दा चूंकि सत्तारुद पार्टी के प्रतिष्ठा का प्रश्न बना रहा ,लिहाजा राज्य सरकार ने भी अपनी और से कोई कोर-कसर नहीं छोडी..मापदंडों को पूरा करने में कमी सामने आने पर शासन स्तर पर अपनी जमानत तक दी..इस तरह ले-देकर हर साल मान्यता की गाडी आगे घिसटती रही..यहाँ ये बताना लाजिमी है कि मान्यता के नाम पर भवन निर्माण ,पुस्तकों और चिकित्सा उपकरणों की खरीदी आदि में अफसरों ने जहां जबरदस्त रुचि ली ..जबकि छात्रों को पदाने के लिए प्राध्यापकों का जुगाड़ करने जैसे सबसे महत्वपूर्ण काम को पूरा करने में वे तब से आज तारीख तक असफल ही साबित होते रहे..एमसीआई की जांच टीम के सामने इस कमी को छुपाने की साज़िश के तहत इधर-उधर के चिकित्सकों को दो-चार दिन के लिए नियुक्ति देकर काम चलाते रहे...इस तरह अफसरों की लाज तो किसी तरह बचती रही लेकिन मेडिकल छात्रों को पदाने के लिए कम से कम चालीस फीसदी प्राध्यापकों की कमी हमेशा बनी रही..इसी बीच छात्रों की तीन बेच डाक्टर बनाकर निकल भी गयी पर प्राध्यापकों की कमी बनी की बनी रही ..प्राध्यापकों की इस भारी कमी के बीच मेडिकल की पदाई अधकचरे दंग से पूरा करनेवाले ये डाक्टर अब जिन्दगी भर हजारों-हजार मरीजों का कितना और कैसा इलाज़ कर पाएंगे इस अहम् सवाल का जवाब आज कहीं से मिलता नहीं दिखता..इन मरीजों को होने वाले शारीरिक,आर्थिक और मानसिक नुकसानों का आकलन कौन और कैसे करेगा ..उन्हें इस नुकसान का मुआवजा किस जनम में मिल सकेगा..फर्जी तौर पर मापदंड पूरा करने की साज़िश करके ऐन-केन-प्रकारेण मान्यता हथियाना क्या जुर्म नहीं है ..किसे मिलनी चाहिए इस जुर्म की सज़ा..कोई भी सभ्य समाज इन सवालों से मुंह कैसे फेर सकता है..यहाँ ये बता दें कि मौजूदा भाजपा शासनकाल में जगदलपुर में मेडिकल कालेज का मान्यता पाने के लिए बिलासपुर जैसी तिकड़मों को अपनाया गया था ..इसी सत्र से पचास सीटों पर भर्ती की इजाज़त भी पा ली थी ..ये तो भला हो नई एमसीआई समिति का कि जिसने बिलासपुर के साथ ही जगदलपुर की मान्यता खत्म करके अधकचरे डाक्टरों की और नई पौध के ऊगने का रास्ता ही बंद कर दिया.
बेशक,इन दोनों मेडिकल कालेजों की मान्यता की समाप्ति के इस ताजे फैसले को छत्तीसगढ़ के हितों के विपरीत बताने वालों की तादाद भी कम नहीं होगी ..संयोग से आज ही पीएमटी का नतीज़ा भी निकला है और इन्हीं मेडिकल कालेजों में पदकर अपना भविष्य संवारने का सपना देखनेवाले छात्रों को भारी मायूसी होगी..लेकिन प्रश्न ये भी है ऐसे कालेजों से निकलनेवाले गुनवत्ताविहीन डाक्टर कल जब हमारा इलाज़ करेंगे तब हम पर क्या बीतेगी.ये शासन की जवाबदारी है वह केवल राजनीतिक वाहवाही लूटने के नाम पर नए-नए मेडिकल कालेज खोलने का ऐलान करने की जगह पहले मौजूदा कालेजों की मान्यताओं के लिए तय मापदंडों को ईमानदारी से पूरा करे और सही अर्थों में मरीजों की सेवा कर सकने योग्य अच्छे डाक्टर समाज को दे..
Thursday, May 27, 2010
BECHAARAA KAANOON
अपराधियों को अदालतों से सज़ा दिलाने की मौजूदा व्यवस्था के पीछे उद्देश्य क्या है और किस हद तक इन उद्देश्यों की पूर्ति हो पा रही है ,रोज़मर्रा की ज़िंदगी में नज़र आने वाली वारदातों के आईने में आज यह एक ऐसे अहम् सवाल के बतौर सामने है कि इससे मुंह चुराने का मतलब खुद को धोखा देने के अलावा और कुछ नहीं होगा . क़ानून के पंडित इस बारे में भले ही चाहे जितने विस्तार से ब्योरा दें,मुझ जैसे आम लोग तो यही मानते हैं कि लोग सज़ा पाने के डर से गैरकानूनी काम करने से भी डरें,जिससे समाज में कम से कम अपराध हो और लोग भयमुक्त माहौल में अमन-चैन से जीवनयापन कर सकें,यही उद्देश्य है . युगों-युगों से इसी तरह के उद्देश्यों को लेकर जुर्मों के लिए सज़ा देने की व्यवस्था लागू है . ये अलग बात है कि इसके बाद भी ना केवल अपराध हो रहे हैं बल्कि दिन पर दिन बढते भी जा रहे हैं.
क़ानून,अपराध,सज़ा और उसके उद्देश्यों के चौराहे पर खड़े मुझ जैसे आम आदमी के लिए हाल में हुई दो विरोधाभाषी घटनाएँ दिमाग चकरा देने की हद तक अवाक कर देने के लिए काफी है .पहली घटना हरियाणा की है,जहां नाबालिग टेनिस खिलाड़ी रूचिका के साथ छेड़छाड़ के जुर्म में प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक एसपीएस राठौर को पूर्व में दी गयी छः माह की सज़ा की अवधि को बढाकर सत्र न्यायालय ने डेढ़ वर्ष करते हुए जेल भेज दिया .आरोप है कि अपने साथ हुई इस बदसलूकी का प्रतिरोध करने और न्याय के लिए संघर्ष करने से नाराज होकर राठौर ने रूचिका व उसके परिवारवालों को इस कदर प्रताड़ित किया कि घबराई रूचिका खुदकुशी कर बैठी.राठौर के खिलाफ ये मामला अभी अदालत में लंबित है.बहरहाल छेड़खानी मामले में स्वर्गीय रूचिका के परिवारवालों को वारदात के बीस साल बाद न्याय मिल सका था .देश भर के न्यूज़-चैनल्स दो दिनों तक दिन-रात इस खबर को दिखाते रहे.अखबार भी पीछे नहीं रहे.निचोड़ में मीडिया ने यही सन्देश देने की कोशिश की कि न्याय के घर देर भले हो पर अंधेर नहीं है और अपराधी चाहे पुलिस विभाग का ही बड़ा से बड़ा अफसर क्यों ना हो,क़ानून की नज़र से नहीं बच सकता .
कुल मिलाकर बड़े जोर-शोर से ये उम्मीद जताई गयी कि डीजीपी राठौर को मिली सज़ा से समाज में एक सार्थक सन्देश जाएगा और खुद को तोपचंद समझनेवाले आला अफसर अपनी मनमानियों से बाज़ आयेंगे .अलबत्ता,राठौर को सज़ा मिलने के महज़ दो दिन बाद ये उम्मीदें किस कदर चकनाचूर हुई है ये बताने के लिए सिर्फ एक उदाहरण देना काफी है .आज २७ मई की सबसे हृदयविदारक खबर ये है कि मध्यप्रदेश के छतरपुर जिला मुख्यालय की पुलिस के दो सिपाहियों की प्रताड़ना से तंग आकर दो युवा सगी बहनों ने आत्महत्या कर ली.सिपाहियों ने डरा-धमकाकर उनकी अश्लील एमएमएस बना ली थी और शारीरिक शोषण के लिए प्रताड़ित कर रहे थे.मामले की शिकायत एसपी से भी की गयी थी .पुलिस प्रशासन का दावा है कि शिकायत पर दोनों पुलिसवालों को निलंबित कर दिया गया था .यदि इस दावे को सही माने तो निलंबन के बाद भी प्रताड़ना का दौर इस कदर जारी रहा कि दोनों बहनों ने घबराकर खुदकुशी कर ली.अब पुलिस जांच-जांच का खेल खेल रही है.हरियाणा में डीजीपी राठौर को सज़ा मिलने और इसके देश भर में प्रचार होने के महज दो दिन बाद सामने आई ये वारदात क्या ये साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं कि क़ानून के मौजूदा प्रावधान अपराध रोकने या कम करने के अपने उद्देश्य को पूरा करने के आईने में नाकाफी है.
क़ानून,अपराध,सज़ा और उसके उद्देश्यों के चौराहे पर खड़े मुझ जैसे आम आदमी के लिए हाल में हुई दो विरोधाभाषी घटनाएँ दिमाग चकरा देने की हद तक अवाक कर देने के लिए काफी है .पहली घटना हरियाणा की है,जहां नाबालिग टेनिस खिलाड़ी रूचिका के साथ छेड़छाड़ के जुर्म में प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक एसपीएस राठौर को पूर्व में दी गयी छः माह की सज़ा की अवधि को बढाकर सत्र न्यायालय ने डेढ़ वर्ष करते हुए जेल भेज दिया .आरोप है कि अपने साथ हुई इस बदसलूकी का प्रतिरोध करने और न्याय के लिए संघर्ष करने से नाराज होकर राठौर ने रूचिका व उसके परिवारवालों को इस कदर प्रताड़ित किया कि घबराई रूचिका खुदकुशी कर बैठी.राठौर के खिलाफ ये मामला अभी अदालत में लंबित है.बहरहाल छेड़खानी मामले में स्वर्गीय रूचिका के परिवारवालों को वारदात के बीस साल बाद न्याय मिल सका था .देश भर के न्यूज़-चैनल्स दो दिनों तक दिन-रात इस खबर को दिखाते रहे.अखबार भी पीछे नहीं रहे.निचोड़ में मीडिया ने यही सन्देश देने की कोशिश की कि न्याय के घर देर भले हो पर अंधेर नहीं है और अपराधी चाहे पुलिस विभाग का ही बड़ा से बड़ा अफसर क्यों ना हो,क़ानून की नज़र से नहीं बच सकता .
कुल मिलाकर बड़े जोर-शोर से ये उम्मीद जताई गयी कि डीजीपी राठौर को मिली सज़ा से समाज में एक सार्थक सन्देश जाएगा और खुद को तोपचंद समझनेवाले आला अफसर अपनी मनमानियों से बाज़ आयेंगे .अलबत्ता,राठौर को सज़ा मिलने के महज़ दो दिन बाद ये उम्मीदें किस कदर चकनाचूर हुई है ये बताने के लिए सिर्फ एक उदाहरण देना काफी है .आज २७ मई की सबसे हृदयविदारक खबर ये है कि मध्यप्रदेश के छतरपुर जिला मुख्यालय की पुलिस के दो सिपाहियों की प्रताड़ना से तंग आकर दो युवा सगी बहनों ने आत्महत्या कर ली.सिपाहियों ने डरा-धमकाकर उनकी अश्लील एमएमएस बना ली थी और शारीरिक शोषण के लिए प्रताड़ित कर रहे थे.मामले की शिकायत एसपी से भी की गयी थी .पुलिस प्रशासन का दावा है कि शिकायत पर दोनों पुलिसवालों को निलंबित कर दिया गया था .यदि इस दावे को सही माने तो निलंबन के बाद भी प्रताड़ना का दौर इस कदर जारी रहा कि दोनों बहनों ने घबराकर खुदकुशी कर ली.अब पुलिस जांच-जांच का खेल खेल रही है.हरियाणा में डीजीपी राठौर को सज़ा मिलने और इसके देश भर में प्रचार होने के महज दो दिन बाद सामने आई ये वारदात क्या ये साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं कि क़ानून के मौजूदा प्रावधान अपराध रोकने या कम करने के अपने उद्देश्य को पूरा करने के आईने में नाकाफी है.
Friday, May 21, 2010
Shantee Yaa Sannaata
खुद को सबसे बढ़िया कहने वाले छत्तीसगढ़-राज में हाल में हुई दो घटनाएँ आँखें खोल देने वाली है.ये दोनों ही घटनाएँ दुर्ग जिले की है और दोनों का संबंध साहू समाज से है .पहली घटना जिले के गुरूर थाना क्षेत्र के चिरकारी गाँव की है .यहाँ के मनोहर की शादी करीब २५ साल पहले हुई थी .उसके चार बच्चे भी हैं .इन्हीं में से एक उसकी बेटी की हाल में शादी क्या हुई,मनोहर और उसके परिवार पर दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा.दरअसल बेटी के विवाह समारोह के दौरान ये बात सामने आई कि मनोहर और उसकी पत्नी का गोत्र एक ही है इसी आधार पर समाज के लोगों ने कहा कि सगोत्रीय होने के कारण मनोहर और उसकी पत्नी के बीच सिर्फ भाई-बहन का संबंध हो सकता है .समाज ने इसी के साथ उनके २५ वर्ष से जारी वैवाहिक संबंध को ही अवैध करार दे दिया .ये मुद्दा आखिर उस दुखद मोड़ तक जा पहुंचा कि मनोहर की पत्नी को ग्लानिवश आत्महत्या का रास्ता चुनना पड़ गया .
दूसरी घटना में दुर्ग जिले के और साहू समाज के ही एक युवक व उसके परिवार को इसलिए जात से बाहर कर दिया गया कि उसने पिता की मौत होने पर अपना सर नहीं मुडवाया.इस युवक का उद्देश्य सिर्फ इतना था कि वह इस अनावश्यक परंपरा और अंधविश्वास के खिलाफ एक मिसाल पेश कर सके.
इन दोनों वारदातों के उजागर होने के बाद भी प्रदेश की किसी पार्टी,किसी नेता या किसी सामाजिक संस्था ने पीड़ितों को न्याय और दोषियों को सजा दिलाने के नाम पर कोई आवाज़ नहीं उठाई है...वाकई कितना बढिया,कितना शांतिप्रिय प्रदेश है अपना ..सवाल ये है कि यदि इसी का नाम शांति है तो सन्नाटा किसे कहते हैं ?
दूसरी घटना में दुर्ग जिले के और साहू समाज के ही एक युवक व उसके परिवार को इसलिए जात से बाहर कर दिया गया कि उसने पिता की मौत होने पर अपना सर नहीं मुडवाया.इस युवक का उद्देश्य सिर्फ इतना था कि वह इस अनावश्यक परंपरा और अंधविश्वास के खिलाफ एक मिसाल पेश कर सके.
इन दोनों वारदातों के उजागर होने के बाद भी प्रदेश की किसी पार्टी,किसी नेता या किसी सामाजिक संस्था ने पीड़ितों को न्याय और दोषियों को सजा दिलाने के नाम पर कोई आवाज़ नहीं उठाई है...वाकई कितना बढिया,कितना शांतिप्रिय प्रदेश है अपना ..सवाल ये है कि यदि इसी का नाम शांति है तो सन्नाटा किसे कहते हैं ?
Thursday, May 20, 2010
Poora Taalab Hee Gandaa Hai
खबर छपी है कि १९ मई को एंटी करप्शन ब्यूरो ने बिलासपुर के अपर कलेक्टर के स्टेनो को रिश्वत लेते हुए रंगे हाथ पकड़ा है.इस सफल कार्यवाही से जुड़े अफसरों को बधाई.सच ये भी है कि सरकारी दफ्तरों में घूस लेना-देना दूध में पानी की मिलावट की तरह अघोषित मगर सर्वमान्य क़ानून-सा बन चुका है .क्या प्रदेश के किसी मंत्री या आला अफसर में छाती ठोंककर ये कहने का साहस है कि कि अमुक विभाग के अमुक शहर में स्थित आफिस में बिना कुछ लिए-दिए कोई काम समय पर हो जाएगा.ज़ाहिर है कि पूरा तालाब ही गंदा है .नेता किसी भी पार्टी के हों,उन्हें ये गन्दगी तभी तक नज़र आती है जब तक वे विपक्ष में रहते हैं .सत्ता में आते ही उन्हीँ बदनाम अफसरों और कर्मियों से उनका प्रेमालाप देखते ही बनता है .इन हालातों में घूस लेने के लिए कभी-कभार इक्का-दुक्का लोगों के पकडे जाने की खबर पाकर दिमाग में पहली प्रतिक्रिया यही उभरती है कि बिचारे का बेड लक चल रहा होगा ..ये भी ख्याल आता है कि किसी मंत्री या बड़े अफसर से जाने-अनजाने में पंगा मोल लेने की बेवकूफी कर दी होगी ..बरसों से यही सब चल रहा है ..और कब तक जारी रहेगा कौन जाने.स्वामी रामदेव कहते हैं कि वे भ्रष्टाचार -मुक्त भारत के लिए अगले चुनावों से साफ़-सुधरे चरित्र वालों को जन प्रतिनिधि बनाने की मुहिम चला रहे हैं..स्वामीजी की नीयत पर संदेह तो नहीं है लेकिन सौ टके का सवाल ये भी है कि वे ऐसे साफ़-सुधरे लोग पायेंगे कहाँ से ...
Friday, May 14, 2010
Aadamee Aur Kutta
ज़रुरत इस बात पर ईमानदारी से विचार करने की है कि किसी आदमी को कुत्ता कहने का मतलब उस आदमी को गाली देना है या उसकी तारीफ़ करना..ज़वाब इस सवाल का भी उतनी ही ईमानदारी से तलाशना वक्त की मांग है कि ऐसा कहने के पीछे कहीं कुत्तों को गाली देने की नीयत तो नहीं है ..खासकर जब किसी सियासती शख्सियत को कुत्ता कहा जाए तब तो इस पर और भी संजीदगी से ख्याल करना ज़रूरी लगता है ..और क्यों न हो,आखिर कुत्ता एक वफादार प्राणी है ..इतना वफादार कि इस मायने में उसकी बराबरी करने वाला कोई जीव पूरे ब्रम्हाण्ड में याद नहीं आता..हजारों किस्से- कहानियां गवाह हैं कि कुत्ता चाहे किसी गरीब आदमी का हो या महाराज युधिष्ठिर का,अंतिम दम तक समर्पित रहने के मामले में उसकी कोई सानी नहीं ..ये सब मेरी निजी सोच या राय नहीं बल्कि एक ऐसा तथ्य है जिसे समूची दुनिया जानती है.. दुनिया को ये भी अच्छी तरह मालूम है कि इसी वफादारी और समर्पण के आईने में अधिकतर आदमियों ,खासकर सियासतदानों के चेहरे कितने बदरंग नज़र आते हैं..इन असलियतों,इन सच्चाइयों पर गौर करते हुए अपनी छाती पर हाथ रखकर हर कोई खुद विचार करे कि किसी आदमी को कुत्ता कहना उस शख्स को गाली देना है या समूची कुत्ता जाति को..आरएसएस की अंगुलियाँ के सहारे रातोंरात भाजपा के अध्यक्ष बनकर देश की राष्ट्रीय राजनीति का अभी ककहरा सीख रहे नितिन गडकरी को अपनी पार्टी का चिंतन शिविर बुलाकर इस मुद्दे पर विचार करना चाहिए और शायद तभी उन्हें इस सत्य से साक्षात्कार हो पायेगा कि अपनी गलती के लिए दरअसल उन्हें माफी तो कुत्तों से मांगनी चाहिए ..कुत्ता जैसा कहने के लिए गडकरी को गरिया रहे सियासत में परिवारवाद के पोषक बन चुके लालू और मुलायमसिंह यादव भी इस सच को स्वीकार कर सकें तो वे गुस्से में अपना खून जलाने की गलती को सुधार सकते हैं...
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